Tuesday, May 21, 2019

अदालतों के लिए गर्मियों की छुट्टियां क्यों?

गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा कौन लेते हैं? इस सवाल के जवाब में आप तुरंत कहेंगे कि स्कूल और कॉलेज. लेकिन इनके साथ एक नाम और जोड़ दीजिए देश के न्यायालय.

अदालतों में छुट्टियों का कैलेंडर देखने का बाद आपका मन भी करने लगा होगा कि काश हम भी इन अदालतों के कर्मचारी होते, तो इतनी सारी छुट्टियां मिल जातीं.

साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट में 193 दिन काम हुआ. जबकि देश की विभिन्न हाईकोर्ट औसतन 210 दिन खुली रहीं. इसके अलावा अन्य अधीनस्त अदालतें 254 दिनों तक काम करती रहीं.

लेकिन इन अदालतों से परे ज़िलों और तालुका स्तर की आपराधिक मामलों की अदालतें छुट्टी वाले दिनों में भी काम करती रहीं.

हालांकि, छुट्टी वाले दिनों में काम के दौरान किसी भी पुराने मामले के लिए नई तारीखों की घोषणा नहीं होती और सिर्फ ज़मानत याचिकाओं और अन्य ज़रूरी मामलों का निपटारा किया जाता है.

अदालतों के अलावा दूसरा कोई भी सरकारी विभाग इतने दिनों तक छुट्टियों पर नहीं जाता. यही वजह है कि अदालतों की ये छुट्टियां हमेशा चर्चा का विषय बनी रहती हैं. कई लोगों का मामना है कि अदालतों की इन छुट्टियों की वजह से ही आम जनता को न्याय मिलने में देरी होती है.

साल 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय अदालतों में 3.3 करोड़ से अधिक मामले अभी विचाराधीन हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि छुट्टियों के चलते यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है.

लेकिन सवाल उठता है कि आखिर अदालतों में इतनी छुट्टियां मिलती क्यों हैं और छुट्टियों का यह नियम आया कहां से?

कई लोगों का कहना है कि अदालतों में गर्मियों की छुट्टियों का नियम अंग्रेज़ों ने अपनी सुविधा के अनुसार बनाया था.

महाराष्ट्र के एक पूर्व महाधिवक्ता श्रीहरि अनेय इन छुट्टियों की बहुत ही कड़े शब्दों में निंदा करते हैं.

वो कहते हैं, ''अंग्रेज़ों ने यह व्यवस्था बनाई. गर्मियों के दिनों में अंग्रेज जज किसी पहाड़ी इलाके में या फिर इंग्लैंड चले जाते थे. आज़ादी के बाद भी हम उनके इस नियम को लागू कर रहे हैं. मेरे विचार से अदालतों के पास बहुत ज़्यादा छुट्टियां हैं. दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जहां कि अदालतें इतनी लंबी छुट्टियों पर जाती हैं.''

वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता असीम सरोडे को लगता है कि अदालतों में लंबित मामलों की संख्या को देखते हुए जजों का गर्मियों की छुट्टियों पर जाना उचित नहीं है.

वे कहते हैं, ''मैं यह नहीं कहता कि अदालतों में छुट्टियां होनी ही नहीं चाहिए. लेकिन छुट्टियों के चलते अदालतों का काम पूरी तरह ठप्प नहीं होना चाहिए. इसके स्थान पर कुछ न कुछ वैकल्पिक व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए. कई बार ऐसे मामले आते हैं जिसमें तुरंत न्याय की आवश्यकता होती है.''

''कई बार मानवाधिकार से जुड़े मामलों में तुरंत न्याय की गुंजाइश होती है लेकिन अदालत छुट्टी पर चल रही होती है, ऐसे हालात में यह साबित करना होता है कि हमें तुरंत न्याय क्यों चाहिए. यह बहुत बड़ा अन्याय है. इसीलिए अदालतों में जजों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए. सभी जजों को छुट्टी पर भेजने की जगह इसमें रोटेशन नीति अपनानी चाहिए.''

असीम सरोडे पुराने नियमों और व्यवस्था को ढोते रहने का विरोध करते हैं और नई व्यवस्था लागू करने की बात करते हैं.

वो कहते हैं, ''दरअसल अदालतों में मिलने वाली यह छुट्टियां अंग्रेज़ों की गुलामी का प्रतीक हैं. हम अभी तक इनसे बाहर नहीं निकल सके हैं. हम विकासशील देश हैं. हमें और तरक्की की ज़रूरत है. और इसके लिए हमें और अधिक काम करने की ज़रूरत है. लेकिन हम तो छुट्टियां ले रहे हैं.''

बॉम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील प्रवर्तक पाठक कहते हैं, ''न्यायव्यवस्था के भीतर वकील और जज बहुत अधिक दबाव में काम कर रहे हैं. इस दबाव को कम करने के लिए छुट्टियां बहुत आवश्यक हैं.''

वो साथ ही कहते हैं, ''अदालत में रहना जज की नौकरी का हिस्सा है. लेकिन जब वो कोर्ट में नहीं रहते तब भी वो कोई रिसर्च, किसी ऑर्डर का लेखन, दूसरे आदेश को पढ़ना और क़ानून को लगातार पढ़ते रहने का काम करते रहते हैं. इसलिए उन्हें लंबी छुट्टियों की ज़रूरत महसूस होती है.''

मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस हरि पारानथमन मानते हैं कि कोर्ट से दूसरे सरकारी विभागों की छुट्टियों की तुलना करना ठीक नहीं है.

वो कहते हैं, "ये एक अलग तरह का काम होता है. ये सवाल उठाना ग़लत है कि जब किसी अन्य विभाग में छुट्टियां नहीं होती हैं तो कोर्ट में क्यों होनी चाहिए"

लेकिन एक सवाल अभी भी मौजूद है कि क्या अदालतों में करोड़ों मामले कोर्ट की छुट्टियों की वजह से लंबित हैं.

जस्टिस पारानथमन कहते हैं, "छुट्टियां कोई मुद्दा नहीं हैं. अदालतों में मामले लंबित हैं क्योंकि किसी तरह की जवाबदेही नहीं है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. निचली अदालतों में अगर कोई फैसला दो साल में नहीं आता है तो हाई कोर्ट उनसे देरी को लेकर सवाल करती हैं. लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से ये सवाल पूछने वाला कोई नहीं है. ऐसे में कानूनी मामले 20 साल तक चलते रहते हैं."

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